सुबह सी विरल, संध्या सी सरस।
एक पल को भी देखू , आंखे हो जाये चौरस
यूँ तो सामने होता हूँ अनेको बार,
कमबख्त तभी होती हैं कशमकश।
नयने जैसे जेठ की दुपहरी के बाद सावन ,
सादगी में ही अन्तर्निहित श्रृंगार पावन,
मन ही रकीब हो रहा हैं अब मेरा,
बातों की चासनी में डूब गया ये कल्हण।
परीक्षा को अब वक़्त रह गए हैं चन्द,
आंखे हैं खुली, ज्ञान की पोटलिया हैं बंद।
करार सा हैं कोई स्वप्न व् निशा में,
तुम्हारे आग़ोश में डूब रहा हु मंद मंद।
विकलता का आव-भाव कह रहा हैं,
कोई नशा मुझपे असर कर रहा हैं।
तुम्हे तो हैं भी नही पता,
तू मेरे हृदय में कर क्या रहा हैं?
Great, specially last line......."tumhe to hai bhi nahi pata, tu mere hriday me kar kya raha hai?" kya baat hai!! Shubh the poet arrives!!
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