Wistfully,
I swimmed into past.
Gloomy,
How long it will last?
I had choosen a way.
I had nothing to say.
Fighting to me ,by myself.
Deteriorating per day.
Memories,
I was fed up with that.
wanted to decrease,
Trojan, a layer fat.
But Now
I am living in present.
Without any past scent.
Walls of my heart,
With karma, Have a paint.
Relaxed,
I dont think too much.
Attitude changed,
My heart, in my clutch.
I dont know,
Whether I have succeed.
But i am bit confident,
With my every deed.
Sunday, September 26, 2010
Monday, September 20, 2010
My Mother
It was almost midnight.
suddenly,
I got vision, a sight.
I saw myself crumbled,
by a crosswind.
Breathing high, feared.
Place was strange.
Dark and unknown.
Wanted to swallow, a revenge.
Running recklessly,
I saw her.
& everything diminished,
along with my fear.
I tight hugged her.
Still scare.
She smiled--
"Without any clue,
I will be with you."
suddenly,
I got vision, a sight.
I saw myself crumbled,
by a crosswind.
Breathing high, feared.
Place was strange.
Dark and unknown.
Wanted to swallow, a revenge.
Running recklessly,
I saw her.
& everything diminished,
along with my fear.
I tight hugged her.
Still scare.
She smiled--
"Without any clue,
I will be with you."
Thursday, September 16, 2010
ME
When i see,
deep inside me.
I see a boy,bounded.
locked in the room,
With no mercy.
Suffocation was high,
He wanted to cry,
Once he overexpressed,
Gradually became shy.
Somehow,
He unlocked the room.
Came into existence
& tried to destroy the gloom.
He was alone,
Roads were broken,hazard.
Destiny was waiting.
He was in dilemna,
He himself was creating.
But,
It was not what he wanted.
He left,
what he was granted.
He went again,
to that room.
Locked the door,
with reminders of
rain and the shore.
deep inside me.
I see a boy,bounded.
locked in the room,
With no mercy.
Suffocation was high,
He wanted to cry,
Once he overexpressed,
Gradually became shy.
Somehow,
He unlocked the room.
Came into existence
& tried to destroy the gloom.
He was alone,
Roads were broken,hazard.
Destiny was waiting.
He was in dilemna,
He himself was creating.
But,
It was not what he wanted.
He left,
what he was granted.
He went again,
to that room.
Locked the door,
with reminders of
rain and the shore.
Sunday, August 22, 2010
JINDAGI...............THE OTHER SIDE
खुशिओ की खाक,
कशमकश की बू,
यद्यपि की आदत.
अनंत का न कोई अंत अंत .
सताए...... कितनी रे जिंदगी .
आँहो में जलन,
साँसों में चुभन.
दिमाग में फंसी चिंगारी,
आँखों में जब्त स्याही स्याही.
भुनाए.... कितनी रे जिंदगी.
सन्नाटे में कैद स्वप्न.
सख्त होती हर डगर.
कोड़े खाते हुए दिन.
ले जाये नित कुछ छीन छीन.
ले जाये.......कितनी रे जिंदगी.
भरमाये......कितनी रे जिंदगी.
कशमकश की बू,
यद्यपि की आदत.
अनंत का न कोई अंत अंत .
सताए...... कितनी रे जिंदगी .
आँहो में जलन,
साँसों में चुभन.
दिमाग में फंसी चिंगारी,
आँखों में जब्त स्याही स्याही.
भुनाए.... कितनी रे जिंदगी.
सन्नाटे में कैद स्वप्न.
सख्त होती हर डगर.
कोड़े खाते हुए दिन.
ले जाये नित कुछ छीन छीन.
ले जाये.......कितनी रे जिंदगी.
दम तोड़ता सूरज .
आजाद होता अंधकार .
बौराया हुआ सन्नाटा,
टीस मारती हर कसक कसक.भरमाये......कितनी रे जिंदगी.
Thursday, July 8, 2010
MERI SAJNI
दुप्पटे की ओट में,
खुद को छिपाए.
इंतज़ार में,
पलकें बिछाए.
मेरी सजनी.
खामोश है वो.
पर दिल बोल रहा हैं.
कुमकुम में
मेरे लिए ही शोर रहा है.
मेहँदी का रंग
भी सूखे जाये.
मेरी यादों को
सीने से लगाये.
मेरी सजनी
मैं दूर बहुत,
पर तू पास है मेरे.
तुझे लेकर,
मेरे सपने है बहुतेरे.
कजरिया वाले
नयनों को भिन्गाये.
सखियों के संग,
मेरे ही लिए गाये.
मेरी सजनी.
खुद को छिपाए.
इंतज़ार में,
पलकें बिछाए.
मेरी सजनी.
खामोश है वो.
पर दिल बोल रहा हैं.
कुमकुम में
मेरे लिए ही शोर रहा है.
मेहँदी का रंग
भी सूखे जाये.
मेरी यादों को
सीने से लगाये.
मेरी सजनी
मैं दूर बहुत,
पर तू पास है मेरे.
तुझे लेकर,
मेरे सपने है बहुतेरे.
कजरिया वाले
नयनों को भिन्गाये.
सखियों के संग,
मेरे ही लिए गाये.
मेरी सजनी.
Wednesday, July 7, 2010
PRAKRITI
प्रकृति की तो बात ही है निराली,
न मानो तो देख लो-
बहता हुआ नीर या कोयलों की कवाली.
गगन नापने चले चिडियो की टोली.
उधार्वपातित होती हुई ओस,
ओस के ऊपर फूलो में छिपी कोई रंगोली.
प्रकृति थोड़ी सी विचित्र है.
पर्वत ऊँचे, सागरों में केवल पानी,
फिर भी देखो दोनों मित्र हैं.
कहीं तो दूर दूर तक बर्फ जमी है.
कहीं हिलोर मारती लहरें हैं,
रेत से जिनको कोई दुश्मनी है.
पीपल का पेड़ भी कितना घना हैं.
और कमल को तो देखो -
राजा है, फिर भी कीचड़ से सना है.
न मानो तो देख लो-
बहता हुआ नीर या कोयलों की कवाली.
गगन नापने चले चिडियो की टोली.
उधार्वपातित होती हुई ओस,
ओस के ऊपर फूलो में छिपी कोई रंगोली.
प्रकृति थोड़ी सी विचित्र है.
पर्वत ऊँचे, सागरों में केवल पानी,
फिर भी देखो दोनों मित्र हैं.
कहीं तो दूर दूर तक बर्फ जमी है.
कहीं हिलोर मारती लहरें हैं,
रेत से जिनको कोई दुश्मनी है.
पीपल का पेड़ भी कितना घना हैं.
और कमल को तो देखो -
राजा है, फिर भी कीचड़ से सना है.
Sunday, June 6, 2010
abki saawan
हृदय का रुख मोड़ देंगे.
मेघ फिर आकर,
धरा को झकझोर देंगे.
अभी तो है जानलेवा तपन.
धरती बदल जाएगी,
जब आ जायेगा सावन.
अबकी सावन,मोरे पिया आयेंगे.
परदेश में हैं,
आंसू बदलो को मिल जायेंगे.
बुँदे अपने अल्फाज़ कहेंगे.
बात भी सच्ची है,
जेठ को हम कब तक सहेंगे.
हममे से कुछ बूंदों में टहलेंगे.
बातें है जो रुकी हुई,
उनको भी हम कह लेंगे.
मेघ फिर आकर,
धरा को झकझोर देंगे.
अभी तो है जानलेवा तपन.
धरती बदल जाएगी,
जब आ जायेगा सावन.
अबकी सावन,मोरे पिया आयेंगे.
परदेश में हैं,
आंसू बदलो को मिल जायेंगे.
बुँदे अपने अल्फाज़ कहेंगे.
बात भी सच्ची है,
जेठ को हम कब तक सहेंगे.
हममे से कुछ बूंदों में टहलेंगे.
बातें है जो रुकी हुई,
उनको भी हम कह लेंगे.
Sunday, May 23, 2010
Dedicated NADI
नदी बहुत बाबरी है.
सुबह और शाम को,
थोड़ी सी सांवरी है.
ये थोड़ी चंचल है.
गौर से देखो तो,
इसमें पूरा अंचल है.
प्रेम तलाश रही है.
सागर से अलग,
बहुत उदास रही है.
रात चाँद ने फुसलाया था.
देके वास्ता किरणों का,
नदी को बहलाया था.
पर, नदी भी अजीब है.
सागर को लेकर,
ये कितनी सजीव है.
जंगलो, किनारों में क्या है.
सागर के सामने,
क्या पर्वत, क्या धरा है.
इसे यार इसके हाल पर छोर दो.
सतरंगिनी निष्ठुर है,
मुझे विषय कोई आर दो.
सुबह और शाम को,
थोड़ी सी सांवरी है.
ये थोड़ी चंचल है.
गौर से देखो तो,
इसमें पूरा अंचल है.
प्रेम तलाश रही है.
सागर से अलग,
बहुत उदास रही है.
रात चाँद ने फुसलाया था.
देके वास्ता किरणों का,
नदी को बहलाया था.
पर, नदी भी अजीब है.
सागर को लेकर,
ये कितनी सजीव है.
जंगलो, किनारों में क्या है.
सागर के सामने,
क्या पर्वत, क्या धरा है.
इसे यार इसके हाल पर छोर दो.
सतरंगिनी निष्ठुर है,
मुझे विषय कोई आर दो.
Friday, May 21, 2010
banjare
हम तो है बंजारे.
जहा बैठे,
घर हो गया.
बेफिक्री का बोझ
लिए हैं. बाकि सब,
उतर तो गया.
भाग-दौर करते करते
पता नहीं
जशन किधर को गया.
पत्थरो की तलाश में,
हीरो वाला
नज़र तो गया.
आपाधापी इतनी थी.
खुशिओ के वक़्त का
असर तो गया.
चलो कोई नहीं जी
खुश है. जीवन
गुजर तो गया.
जहा बैठे,
घर हो गया.
बेफिक्री का बोझ
लिए हैं. बाकि सब,
उतर तो गया.
भाग-दौर करते करते
पता नहीं
जशन किधर को गया.
पत्थरो की तलाश में,
हीरो वाला
नज़र तो गया.
आपाधापी इतनी थी.
खुशिओ के वक़्त का
असर तो गया.
चलो कोई नहीं जी
खुश है. जीवन
गुजर तो गया.
Wednesday, May 19, 2010
gaon chalo
दो दिन के लिए
ये दौड़ता शहर छोड़े.
चलो चलो ,
गाँव की ओर होले.
शहर में आदतन
नींद आई कहाँ?
दुविधा से दूर,
पीपल की छाव में सोले.
दिनभर की आपाधापी
माथापची, उफ़.
दिमाग फॉर्मेट कर
सरसों के खेत टटोले.
बहुत हुई
आगे से राईट, लेफ्ट,
घर का रास्ता अब
मुंडेर से ले ले .
काम का दायरा
बढ़ाये............
पतंग काटे.
बेफिक्री के गुल्लक फोड़े,
शहर से दूर गाँव में,
बरगद वाले
टायर पे झूले.
बगिया से टिकोले तोड़े.
चलो चलो
गाँव की ओर होले.
ये दौड़ता शहर छोड़े.
चलो चलो ,
गाँव की ओर होले.
शहर में आदतन
नींद आई कहाँ?
दुविधा से दूर,
पीपल की छाव में सोले.
दिनभर की आपाधापी
माथापची, उफ़.
दिमाग फॉर्मेट कर
सरसों के खेत टटोले.
बहुत हुई
आगे से राईट, लेफ्ट,
घर का रास्ता अब
मुंडेर से ले ले .
काम का दायरा
बढ़ाये............
पतंग काटे.
बेफिक्री के गुल्लक फोड़े,
शहर से दूर गाँव में,
बरगद वाले
टायर पे झूले.
बगिया से टिकोले तोड़े.
चलो चलो
गाँव की ओर होले.
Saturday, April 24, 2010
raat tanha hai
दिन की रौशनी में ,
सब दिखता हैं.
रात को देखा ख्वाब भी
दिन को निखरता हैं.
दिन हैं,
कुछ भी कर सकती हु मैं.
उजाले में,
सड़कों से लड़ सकती हु मै.
कुछ भी छुपा नही है,
सब तो काम पर हैं.
थके हारो की नज़र,
तो बस शाम पर है.
नदी को तो मतलब नही,
दिन हैं या रात हैं.
सागर तक पहुच जाये
तो कोई बात है.
बादल और सूरज
लड़ रहे हैं.
किस को है फिकर ,
कुछ तो कर रहे हैं.
अस्तित्व का डर है,
सब खुद में मगन है.
बेख़ौफ़, बंजारा ,
तो बस पवन है.
दिन,
दिन कितना मुश्किल है .
पर........रात ,
रात कितनी तनहा हैं.
सब दिखता हैं.
रात को देखा ख्वाब भी
दिन को निखरता हैं.
दिन हैं,
कुछ भी कर सकती हु मैं.
उजाले में,
सड़कों से लड़ सकती हु मै.
कुछ भी छुपा नही है,
सब तो काम पर हैं.
थके हारो की नज़र,
तो बस शाम पर है.
नदी को तो मतलब नही,
दिन हैं या रात हैं.
सागर तक पहुच जाये
तो कोई बात है.
बादल और सूरज
लड़ रहे हैं.
किस को है फिकर ,
कुछ तो कर रहे हैं.
अस्तित्व का डर है,
सब खुद में मगन है.
बेख़ौफ़, बंजारा ,
तो बस पवन है.
दिन,
दिन कितना मुश्किल है .
पर........रात ,
रात कितनी तनहा हैं.
Monday, April 12, 2010
ख्वाब
हर एक ख्वाब कीमती है,
ख्वाबो का भी अपना आयाम है,
एक ख्वाब में तुम हो,
इठलाती लहरें हैं , हसीं शाम हैं।
ख्वाब तुम्हारे ही लिए है
औरो का क्या काम हैं
तुम पास हो , साथ हो
एक राह , एक मकाम है
ख्वाब की खिरकी पर
आज़ाद पंछी है, लताम हैं।
ख्वाब में ही प्रेम को ढूंढता,
हर अभिलाषित इन्सान हैं।
ख्वाब से विलग सच्चाई हैं
गुरुज़नो का पैगाम है
आज रात कोई ख्वाब नही देखूंगा
कल कुछ ज्यादा ही काम हैं।
ख्वाबो का भी अपना आयाम है,
एक ख्वाब में तुम हो,
इठलाती लहरें हैं , हसीं शाम हैं।
ख्वाब तुम्हारे ही लिए है
औरो का क्या काम हैं
तुम पास हो , साथ हो
एक राह , एक मकाम है
ख्वाब की खिरकी पर
आज़ाद पंछी है, लताम हैं।
ख्वाब में ही प्रेम को ढूंढता,
हर अभिलाषित इन्सान हैं।
ख्वाब से विलग सच्चाई हैं
गुरुज़नो का पैगाम है
आज रात कोई ख्वाब नही देखूंगा
कल कुछ ज्यादा ही काम हैं।
Sunday, April 4, 2010
मम्मी
this poem is dedicated to my mother.........
गर्मी की रात में तू पंखा लिए जगी थी,
जब मुझे बुखार की झप्पी लगी थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
मैंने मारा था बंटी को, गलती मेरी थी।
पर तुझे कौन बताये, तू कितना लड़ी थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
तू मेरे लिए क्या क्या नही करी थी ,
लंच-बॉक्स में खीर, कभी चीनी की रोटी पड़ी थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
बड़े भैया के लिए फटाखे, मेरे लिए फूलझरी थी,
एस लिखा था उसपे, जब पहली स्वेटर बनी थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
अनजाने में ही मैंने प्रसाद थोड़ी सी चखी थी ,
तब क्या पता था, तू मेरे ही लिए सही थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
गर्मी की रात में तू पंखा लिए जगी थी,
जब मुझे बुखार की झप्पी लगी थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
मैंने मारा था बंटी को, गलती मेरी थी।
पर तुझे कौन बताये, तू कितना लड़ी थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
तू मेरे लिए क्या क्या नही करी थी ,
लंच-बॉक्स में खीर, कभी चीनी की रोटी पड़ी थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
बड़े भैया के लिए फटाखे, मेरे लिए फूलझरी थी,
एस लिखा था उसपे, जब पहली स्वेटर बनी थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
अनजाने में ही मैंने प्रसाद थोड़ी सी चखी थी ,
तब क्या पता था, तू मेरे ही लिए सही थी।
मम्मा, तू तो बस मेरी हैं।
Friday, April 2, 2010
फुर्सत है क्या?
the first line of this poem is written by my bhaiya n i hav just completed it. it deals with all the childish thoughts that i imagine most of the times............
कभी फुर्सत हो तो बताना,
हम नीले गगन में जायेंगे।
रेनबो होगा हाथो में,
हम रस्सी कूद के आयेंगे।
धरती दिखेगी किल्कारिया मारते,
सूरज चाचू की रौशनी में,
हम चिडियो के संग
मिलकर, खूब गुन्गुनायेगे।
शांझ अधिक हो जाये तो,
हम सितारों से रौशनी चुरायेंगे।
नाचेंगे, गायेंगे, चिल्लायेंगे,
पर मम्मी को नही बताएँगे।
बादल भी हैं बहुत यहाँ।
इनके संग मिलकार
पहले छुपम- छुपाई खेलेंगे
फिर खूब उधम मचाएंगे।
कभी फुर्सत हो तो बताना,
हम नीले गगन में जायेंगे।
रेनबो होगा हाथो में,
हम रस्सी कूद के आयेंगे।
धरती दिखेगी किल्कारिया मारते,
सूरज चाचू की रौशनी में,
हम चिडियो के संग
मिलकर, खूब गुन्गुनायेगे।
शांझ अधिक हो जाये तो,
हम सितारों से रौशनी चुरायेंगे।
नाचेंगे, गायेंगे, चिल्लायेंगे,
पर मम्मी को नही बताएँगे।
बादल भी हैं बहुत यहाँ।
इनके संग मिलकार
पहले छुपम- छुपाई खेलेंगे
फिर खूब उधम मचाएंगे।
Sunday, March 28, 2010
श्रृंगार पावन
i have used so many rare hindi words because through this poem i want to prove the wideness n beauty of our language..............
सुबह सी विरल, संध्या सी सरस।
एक पल को भी देखू , आंखे हो जाये चौरस
यूँ तो सामने होता हूँ अनेको बार,
कमबख्त तभी होती हैं कशमकश।
नयने जैसे जेठ की दुपहरी के बाद सावन ,
सादगी में ही अन्तर्निहित श्रृंगार पावन,
मन ही रकीब हो रहा हैं अब मेरा,
बातों की चासनी में डूब गया ये कल्हण।
परीक्षा को अब वक़्त रह गए हैं चन्द,
आंखे हैं खुली, ज्ञान की पोटलिया हैं बंद।
करार सा हैं कोई स्वप्न व् निशा में,
तुम्हारे आग़ोश में डूब रहा हु मंद मंद।
विकलता का आव-भाव कह रहा हैं,
कोई नशा मुझपे असर कर रहा हैं।
तुम्हे तो हैं भी नही पता,
तू मेरे हृदय में कर क्या रहा हैं?
सुबह सी विरल, संध्या सी सरस।
एक पल को भी देखू , आंखे हो जाये चौरस
यूँ तो सामने होता हूँ अनेको बार,
कमबख्त तभी होती हैं कशमकश।
नयने जैसे जेठ की दुपहरी के बाद सावन ,
सादगी में ही अन्तर्निहित श्रृंगार पावन,
मन ही रकीब हो रहा हैं अब मेरा,
बातों की चासनी में डूब गया ये कल्हण।
परीक्षा को अब वक़्त रह गए हैं चन्द,
आंखे हैं खुली, ज्ञान की पोटलिया हैं बंद।
करार सा हैं कोई स्वप्न व् निशा में,
तुम्हारे आग़ोश में डूब रहा हु मंद मंद।
विकलता का आव-भाव कह रहा हैं,
कोई नशा मुझपे असर कर रहा हैं।
तुम्हे तो हैं भी नही पता,
तू मेरे हृदय में कर क्या रहा हैं?
Thursday, March 25, 2010
बेफिक्री के गाँव चलो
Well, this poem is dedicated to all who are really screwed up with their hectic schedule.........hope you will like it. :)
दिन की परेड छोर कर,
खुली पलको के छाव तले,
माँ के आँचल में रखकर सर,
चलो बेफिक्री के गाँव चले।
बन्धनों से उन्मुक्त होकर,
कोई नया नगमा गढ़े,
नीरसता को हटा कर,
किसी दिन को नायब करे।
एक बार तो छोरे,
सुबह से शाम तक काम,
एक बार आ जाओ,
रेतों और लहरो में पाँव करे।
भविष्य और अतीत के मध्य
तीव्र चल रहा वर्तमान
कोई तो बोलो ज़रा
ये धीरे अपनी नाव करें।
दिन की परेड छोर कर,
खुली पलको के छाव तले,
माँ के आँचल में रखकर सर,
चलो बेफिक्री के गाँव चले।
बन्धनों से उन्मुक्त होकर,
कोई नया नगमा गढ़े,
नीरसता को हटा कर,
किसी दिन को नायब करे।
एक बार तो छोरे,
सुबह से शाम तक काम,
एक बार आ जाओ,
रेतों और लहरो में पाँव करे।
भविष्य और अतीत के मध्य
तीव्र चल रहा वर्तमान
कोई तो बोलो ज़रा
ये धीरे अपनी नाव करें।
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