Sunday, March 28, 2010

श्रृंगार पावन

i have used so many rare hindi words because through this poem i want to prove the wideness n beauty of our language..............



सुबह सी विरल, संध्या सी सरस।
एक पल को भी देखू , आंखे हो जाये चौरस
यूँ तो सामने होता हूँ अनेको बार,
कमबख्त तभी होती हैं कशमकश।

नयने जैसे जेठ की दुपहरी के बाद सावन ,
सादगी में ही अन्तर्निहित श्रृंगार पावन,
मन ही रकीब हो रहा हैं अब मेरा,
बातों की चासनी में डूब गया ये कल्हण।

परीक्षा को अब वक़्त रह गए हैं चन्द,
आंखे हैं खुली, ज्ञान की पोटलिया हैं बंद।
करार सा हैं कोई स्वप्न व् निशा में,
तुम्हारे आग़ोश में डूब रहा हु मंद मंद।

विकलता का आव-भाव कह रहा हैं,
कोई नशा मुझपे असर कर रहा हैं।
तुम्हे तो हैं भी नही पता,
तू मेरे हृदय में कर क्या रहा हैं?

Thursday, March 25, 2010

बेफिक्री के गाँव चलो

Well, this poem is dedicated to all who are really screwed up with their hectic schedule.........hope you will like it. :)

दिन की परेड छोर कर,
खुली पलको के छाव तले,
माँ के आँचल में रखकर सर,
चलो बेफिक्री के गाँव चले।

बन्धनों से उन्मुक्त होकर,
कोई नया नगमा गढ़े,
नीरसता को हटा कर,
किसी दिन को नायब करे।

एक बार तो छोरे,
सुबह से शाम तक काम,
एक बार आ जाओ,
रेतों और लहरो में पाँव करे।

भविष्य और अतीत के मध्य
तीव्र चल रहा वर्तमान
कोई तो बोलो ज़रा
ये धीरे अपनी नाव करें।