नदी बहुत बाबरी है.
सुबह और शाम को,
थोड़ी सी सांवरी है.
ये थोड़ी चंचल है.
गौर से देखो तो,
इसमें पूरा अंचल है.
प्रेम तलाश रही है.
सागर से अलग,
बहुत उदास रही है.
रात चाँद ने फुसलाया था.
देके वास्ता किरणों का,
नदी को बहलाया था.
पर, नदी भी अजीब है.
सागर को लेकर,
ये कितनी सजीव है.
जंगलो, किनारों में क्या है.
सागर के सामने,
क्या पर्वत, क्या धरा है.
इसे यार इसके हाल पर छोर दो.
सतरंगिनी निष्ठुर है,
मुझे विषय कोई आर दो.
Sunday, May 23, 2010
Friday, May 21, 2010
banjare
हम तो है बंजारे.
जहा बैठे,
घर हो गया.
बेफिक्री का बोझ
लिए हैं. बाकि सब,
उतर तो गया.
भाग-दौर करते करते
पता नहीं
जशन किधर को गया.
पत्थरो की तलाश में,
हीरो वाला
नज़र तो गया.
आपाधापी इतनी थी.
खुशिओ के वक़्त का
असर तो गया.
चलो कोई नहीं जी
खुश है. जीवन
गुजर तो गया.
जहा बैठे,
घर हो गया.
बेफिक्री का बोझ
लिए हैं. बाकि सब,
उतर तो गया.
भाग-दौर करते करते
पता नहीं
जशन किधर को गया.
पत्थरो की तलाश में,
हीरो वाला
नज़र तो गया.
आपाधापी इतनी थी.
खुशिओ के वक़्त का
असर तो गया.
चलो कोई नहीं जी
खुश है. जीवन
गुजर तो गया.
Wednesday, May 19, 2010
gaon chalo
दो दिन के लिए
ये दौड़ता शहर छोड़े.
चलो चलो ,
गाँव की ओर होले.
शहर में आदतन
नींद आई कहाँ?
दुविधा से दूर,
पीपल की छाव में सोले.
दिनभर की आपाधापी
माथापची, उफ़.
दिमाग फॉर्मेट कर
सरसों के खेत टटोले.
बहुत हुई
आगे से राईट, लेफ्ट,
घर का रास्ता अब
मुंडेर से ले ले .
काम का दायरा
बढ़ाये............
पतंग काटे.
बेफिक्री के गुल्लक फोड़े,
शहर से दूर गाँव में,
बरगद वाले
टायर पे झूले.
बगिया से टिकोले तोड़े.
चलो चलो
गाँव की ओर होले.
ये दौड़ता शहर छोड़े.
चलो चलो ,
गाँव की ओर होले.
शहर में आदतन
नींद आई कहाँ?
दुविधा से दूर,
पीपल की छाव में सोले.
दिनभर की आपाधापी
माथापची, उफ़.
दिमाग फॉर्मेट कर
सरसों के खेत टटोले.
बहुत हुई
आगे से राईट, लेफ्ट,
घर का रास्ता अब
मुंडेर से ले ले .
काम का दायरा
बढ़ाये............
पतंग काटे.
बेफिक्री के गुल्लक फोड़े,
शहर से दूर गाँव में,
बरगद वाले
टायर पे झूले.
बगिया से टिकोले तोड़े.
चलो चलो
गाँव की ओर होले.
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