Friday, January 14, 2011

Humsab.......Humlog

आँखों के पर्दों पे,
सपने  संजोये.
पहचान से अलग,
किसी धुन में खोये.
तनहा नही हैं.
साथ है अपनी जिंदगी.
बेतलब आवारगी.
बोलने के लिए,
जब लब्ज़ कम पड़े.
आंखे ही काम आई.
नयने......जल से भरे  पड़े.
हलचल हरकत,
बेमतलब बेवक्त.
संजीदा शुरुआत,
न जाने कैसा अंत.
मंजिल  की ओर,
हर शक्श, हर संत.
देखा जब,
सच से भागती हर नज़र,
नज़रो पे एक जाली.
जाली से सब देखे शहर.
नज़रे फिर हँस पड़ी,
तन्हाई की आदत पड़ी,
ऐसे-वैसे, जैसे-तैसे.
भावनाए, सड़ी-गली.
सच को लांघती सीमायें,
ए लड़की,
तुझे हम क्यों पढाये?
नया  है तू,
क्यों न हम बरगलाये?
.
.
.
और ................ और क्या?
हम सब .........हम लोग.
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